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मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

new year


वो पाहुने सा 
उमंग से पंख फैलाये
 नवीनता की अनुभूति लिए
भूत को हथेली में  दबाये
सप्तरंगी किरणों में सवार 
 उन्मुक्त आकाश से आ रहा है
 मेरे द्वार 
और मैं द्वार खोले
 बांह फैलाये  अभिनन्दन रत  हूँ 
आस में
 विश्वास से जाग्रत है मेरी आत्मा
 कि नव वर्ष लेकर आयेगा
 नव प्रभात .........
वो पहुना बन जायेगा 
मेरा मीत 
 और में उसके साथ सवारुंगी जीवन 
उन्मुक्त आकाश में पसारुंगी  पंख
 गाऊंगी
 नव जीवन के नव  गीत 

गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

विदा


       
               काश,कि जादुई छड़ी आ जाती हाथ में और सब अभी का अभी बदल जाता.सर टिकाए सपना ने बंद आंखों की कोर से ढलकते आंसुओं को रोकने की कोशिश  की. 'न, रोना नहीं है तुम्हे ,एक भी आंसू मत बहाना .मैं  तुमसे जब विदा लूँ तो.... तो न तुम्हारी  आंख में एक आंसू हो और न तुम्हारे  हाथ कांपे.याद रखना सपना ,तुमसे विदाई है. चिर विदाई नहीं .अभी तो मिलन बाकी है असली मिलन',लगा  मानो साँस अटक  गयी है नाक और गले के बीच.अब और नहीं सहा जाता मनु अब रो लेने दो इस घुटन को निकल लेने दो दिल हल्का हो जायेगा तो तुम्हे विदा कर पाऊँगी. न हाथ कापेंगे और न होठ बुदबुदएंगे. आंसुओं का क्या? वे तो पानी है याद है तुम ही तो पोंछ लेते थे होठों से कहते हुए, 'जो सम्हल गया  वो मोती जो निकल गया वो पानी', तो फिर पानी को बह जाने दो. मोती तो सम्हाले  है मैने  उस मिलन के लिए जब हम चंदा की चांदनी में बैठ उन्हे पिरो- पिरो  कर माला बनायेंगे.
          
            'सपना' धीरे से आवाज़ आई,सपना ने खुद को दुरस्त किया खड़ी हुई होठो को फैलाया ,क्या उधार की मुस्कराहट से भी हंसा जा सकता है मनु,जब उदासी हो भीतर तक तो कैसे खुश दिखा जाये.चिर  विदा नहीं पर विदा तो है ,कोई सीमा भी तो नहीं कि तय दिन फिर मिलन होगा. सपना मनु के पास  जाकर लेट गयी .एक   झपकी ले लूँ .थोडा स्फूर्ति आ जाएगी .मनु को भी अच्छा  लगेगा .यही तो मनु ने चाहा कि सपना खुश रहे .ऐसा लगता जब से मनु और सपना एक हुए तब से मनु के जीवन का लक्ष्य  ही एक था सपना का हँसता हुआ चेहरा.कभी सपना उदास होती  तो मनु का हाल बेहाल हो जाता. जाने वो ऐसा क्या कर दे कि सपना खिल उठे.पहले पहल तो सपना कभी भी तुनक जाती, गुस्सा तो उसकी नाक पर बैठा रहता. पिताजी की लाडली जो हुई. पिता ने भी तो हाथों हाथ पला उसे वो कहते है न नाक पर मक्खी  भी न बैठने दी.उसी का तो परिणाम था सपना की तुनक मिजाजी. माँ पिताजी को टोकती  कि ससुराल में क्या करेगी बिटिया, लाड़ प्यार में इतना न बिगाड़ो. तो  पिता जी हंसकर  कहते राजकुमार ले जायेगा और फूलों के झूले में झुलायेगा ,बादलों की गद्दी बिछाएगा  मेरी लाडली के लिए,कही खरोच भी न लगने देगा,और माँ बड़- बड़ करती निकल जाती . सपना पिता से लिपट लाड़ लड़ियाती. 
          पिताजी की जिह्वा में शायद सरस्वती बसती थी.उनका कहा सच हुआ .मनु का आना एक संयोग तो नहीं था तय सा था.किसी पहचान वाले की आंखों का कांटा बनी मैं  न चाहते  हुए  भी बंध गयी मनु के साथ.माँ के माथे की सलवटे कम हुई और पिताजी की तो खुशी का ठिकाना न था. दामाद के रूप में बेटा जो मिल गया.मैं  विदा होकर आई मनु के पास. नया पर अदभुत नहीं यौवन  ने जो अनोखे सपने भरे थे  आंखों में कमोबेश  पूरे नहीं हुए  क्यूंकि यथार्थ  का धरातल कठोर होता है और यौवन  के सपनो का रंग कभी कभी ज्यादा ही रंगीन होता है . हालाँकि मनु ने यथार्थ की कठोरता को अपनी नरम  हथेलिओं से ढक लिया था  मुझे नर्म जमीं पर कदम रखने देने के लिए.
         शुरू में सपना ने बड़ी तुनकमिजाजी  दिखाई ..बार- बार गुस्सा ,जरा सी बात में आसमान खड़ा कर देना.पर मनु जाने किस मिटटी का बना है , मानो अब उसका एक ही लक्ष्य हो सपना के होठों की मुस्कान, मनु की माँ कभी लाड़ से टोकती 'मनु बहुत बिगाड़ रहे हो बहू को',पर माँ  को गले  लगाकर उनको भी मनु ऐसे मना लेते कि नाराज़गी एकदम गायब .क्या बात  है जाने मनु में. क्या प्यार ही है इसके पास,गुस्सा क्यों नहीं आता इस आदमी को ?,नाराज़ क्यों नहीं होता ये? क्या इसकी जिंदगी में कोई परेशानी नहीं है?कोई तनाव नहीं?' तुमने मुझे प्यार करना सिखा दिया मनु',धीरे से मनु का हाथ दबाया सपना ने.मनु के शरीर में थोड़ी हलचल हुई.
           धीरे धीरे जीवन की लय ताल में इतना  सामंजस्य आ गयाथा  कि नदी  की धार सा जीवन कभी धीरे कभी तेज़ चलता यहाँ तक आ गया.सुहास और नीला  का आगमन,उनकी पढाई , नौकरी, विवाह सब  एक- एक कर' पल' बनकर  आये और चले गए. तुमने कभी एहसास ही न होने दिया मनु  कि मेरी भी कोई जिम्मेदारी है .तुम्हारा हाथ थामे में चलती रही .कभी कोशिश नहीं की जानने की कि सब कैसे होता है .कभी कल्पना भी नहीं की कि तुम्हे विदा भी करना होगा . और आज जब वो घडी आई है तुम उस एहसास को भी नहीं जीने दे रहे हो .मुझे रोने दो मनु ,मैं  रोना चाहती हूँ तुम्हारे शक्तिशाली कंधो में सर  रखकर .वो जिम्मेदारी लेना चाहती हूँ तुम्हारी जो अब तक तुमने सम्हाली थी.मुझे भी तो कुछ करने दो तुम्हारे लिए.क्या तुम देखना नहीं चाहोगे  कि मैं  भी कितनी साहसी हूँ .क्यों मुझे इतना कमज़ोर मान रहे हो तुम ?नहीं ,ऐसे तो विदा न कर पाऊँगी तुमको आखिर मैने भी तो सात फेरों की साथ वचन दिया था'.
           मनु का  ठंडा हाथ सपना  हाथ में था.सपना ने  अपनी माथे की बिंदी धीरे से निकाल मनु के माथे में लगा दी,'लो,ये सूरज तुमने हे दिया था मनु ,आज तुम्हे ही देती हूँ .इसकी रौशनी कस एहसास ही अब मेरा पथप्रदर्शन करेगा ,पर  याद रखना मनु ये विदा है चिर विदा नहीं मिलन तो अभी बाकी है चाँद के पार...............



सोमवार, 19 दिसंबर 2011




गुले गुलज़ार हो गया  कोई
 प्यारे इकरार  हो गया कोई 
 अब न कोई बहाना होगा न आने का
 अब तो राहे बहार हो गया कोई 
मुद्दत्त से आरजू की थी 
अब इन्तेज़रें मुद्दत हो गया कोई 
फलसफा  इतना ही नहीं जिंदगी का 
जिंदगी ए फलसफा हो गया कोई ........

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011


आगे कदम बढाते चलो,
 रुको न तुम कभी .
अटको न राह में,
 चूको  न कभी.
 पहाड़ कितना बड़ा हो सामने,
 नाप लो उचाईयों  की डगर.
 सागर को गहरा जितना,
 निकाल लो मोती इस पहर .
रखो बस  ध्यान इतना,
 न डगमगाएं  कदम .
जहा भी  चाह हो,
 निकल आये राह वही.
न गुम हो डगर नज़र से कभी,
 बढे अब तो हर कदम वहा ,
जहा राह हो फूलो से भरी.
 कांटे न आने पाए राहों में,
न छाए अँधेरा आँखों में कभी, 
न गुम हो रौशनी ,
  बढाते जाओ कदम .
 रखो बस ध्यान इतना,
 न डगमगाए कदम.


बुधवार, 14 दिसंबर 2011


तेरे क़दमों  की आहट का ख्याल 
आज भी चौका देता है 
कि सपनो की दुनिया बसाने लगती है आंखे 
भीतर औ बाहर की सनसनी से
 कांप उठते दिल के डाल औ पात 
गर्म हवा भी सिहर सिहर जाती है 
और बहने लगती है आँख की कोर से धार
तटस्थ 'मैं ' नहीं होता झुकने को तैयार
 कि हिलोरे दे रहा मन  का संसार 
जाना भी है मुश्किल 
औ लौटना है कठिन
 कि अब निकल ही चलें 
 सपनो के सफ़र में 
जानकर भी
 कि
 मंजिल की ख्वाहिश  क्यों की ...........


जो  लिखी थी नज़्म कभी तेरे नाम की
 वो   आज   तेरे   नाम   कर    रही    हूँ .
 देरी में ही सही कागजे कलम कर रही हूँ .
बीते  हुए  लम्हे यूँ  ही बिखर जाएँ न  कही
आज  एक बार फिर से उन्हे कैद कर रही हूँ .
सजाये  थे  जो  पल  सपनो  में   कभी
 आज उनको  शहरे  आम  कर  रही    हूँ.
तुझे  गम औ  गिला   हो  कि  न     हो 
तू पढे न पढे ये कलाम कोई फर्क नहीं
 बस  ये नज़्म मै तेरे नाम कर रही हूँ .

मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

kagad ki lekhi: For my daughter


For my daughter



बेटी तुम न समझोगी
मेरा प्यार ........
गर्भ में तुम्हरी आहट
देती थी दिल को जो झंकार
बेटी तुम नहीं समझोगी.......
 नन्ही नन्ही हथेलिओं की गर्माहट
तुमारी मीठी किलकारी
बनी मेरे जीवन का संगीत
बेटी तुम न समझोगी.........
तुम्हारी  उनीदी आंखों  में
 देख ली तभी तुम्हारी   बारात
दिन औ रात का यह स्वप्न
बेटी तुम नहीं समझोगी .........
तुम्हारे  बढने का अहसास
बढाती है धड़कन  मेरी
तुम्हारी   आँखों  के सपने
उड़ाते रातों की नींदे मेरी
बेटी तुम नहीं समझोगी ........
एक दिन आयेगा
एक राजकुमार
तुम्हारा  थामेगा जब हाथ
 सजा डोली,पर मन करता चीत्कार
गाते होठ बरसाती आँख
बेटी तुम न समझोगी ........जीवन का आना
तुम्हारे गर्भ में आहट
उसकी नन्ही हथेलिओं की गर्माहट
ममता तुम्हारी  आँख
बनेगा जब जीवन संगीत
बेटी तब तुम समझोगी
बेटी तब तुम समझोगी
मेरा प्यार .......

motherhood




मातृत्व पर्याय है सृजन का अपने बडे बेटे के जन्म से पहले यू ही एक कविता लिखी थी जो आप लोगो के साथ साझा कर रही हूँ 
चारों दिशाओं से 
यकायक आवाज़ ये आने लगी 
अर्थ बदल रहे है जीवन के 
कि  पर्याय बदल गए है.
मौन हो जाओ क्षितिज 
प्रात का बाल हो जाओ सूर्य
बिखेरो चांदनी चंदा
कि सर्जन कर रही हूँ मैं 
सृजन कर रही हूँ मैं 
अपने लाल का.
जरा लाली तो लाओ सूर्य
हरीतिमा बिखेरो पौध
तनिक सुगंध भी तो हो
वायु,,,,सुनो कहा हो तुम 
जरा पास आ जाओ 
हरिण ,तुम्हारी नयन कीप्रतिमता 
जरा उतारने दो. 
हाँ दंतहीन ओठों में मुस्कराहट 
की रेख तो कमल 
बिखरने दो . 
चाँद अपना रंग तो चढ़ने दो
कि सृजन कर रही हूँ मैं 
उफ्नो मत समुद्र
अपना गाम्भीर्य दो 
थोड़ी चंचलता कि जरुरत है 
लहरों धैर्य से ...
पृथ्वी तुम्हारा  गुरुत्व मुझे चाहिए 
Oसौंधी गंध माटी की
कि सृजन कर रही हूँ मैं 
घटाओ एक बार उमड़ो
बिजली एक बार कौंधो 
तनिक साथ दो मेरा 
सृजन है अप्रतिम अनमोल मेरा
अधूरा रह न जाए 
समर्पण तो करो जरा 
कि सृजन कर रही हूँ मैं
एक योगी का .

Evening mist, Lawrencetown Beach
 इक शाम के धुएं  में
 जो तस्वीर खो गयी थी
 सुबह की किरण के साथ
 वो मिल गयी है.......
 खोने में जो तड़प थी 
मिलन में भी वही है 
एक आरजू थी वो 
 जो शाम का धुआ थी
 एक आरजू है ये  
जो सुबह की रौशनी है ..........

मंगलवार, 29 नवंबर 2011

ekkisvi sadi




यह आपका शहर
 खंडहर सा क्यों है?
हर तरफ कदम निराश से क्यों है?
फूलों की मायूसी 
 कह रही है कहानियां  
क्यों नहीं होता कोलाहल?
जीवन का रंग क्यों नहीं?
सब आडम्बर लगता है
जैसे लोग अजनबी हो खुद में 
क्या  यही है वर्तमान!
जिसे इक्कीसवी सदी कहते है.....



यूँ ही नहीं बनता 
शब्दों का ताना बना
कितने एहसास
 जी के मरते है 
और फिर जीते है
 हर एहसास में तड़प एक उठती  है
 दिल के तार बजते है
 दर्द की बारिशों के बीच
 या फिर ख़ुशी की लहरों में 
 थकी और बुझी  सांसो के बीच
 कई बार उलझते
 कभी गिरते
 कभी उठते बनते बिगडते 
बनता है ताना बना
 कुछ शब्दों का 

सोमवार, 28 नवंबर 2011

ON DAUGHTERS' WEEK

Cute Girl 2
 बेटियां   प्यारी होती हैं ,
बेटियां सुन्दर होती हैं ,
 बेटियां चंचल होती हैं.
 वे रोटी बनती हैं ,                        
पनघट से पानी भरती हैं,
 कपडे धोती हैं .
माँ की आंखे होती हैं  .
 पिता की लाठी होती हैं .
बेटियां सुंदर होती हैं .
 वे माँ भी होती हैं ,
किसी की पत्नी होती हैं 
बहने होती हैं 
 संस्कृति की कर्णधार होती हैं ,
संस्कारी होती हैं 
 बेटियां प्यारी होती हैं .
वे नौकरी करती हैं , 
वे ईंटें  ढोती हैं ,
 वे घर बनाती हैं  
पति का सहारा  बनती हैं 
बेटों की ताकत होती हैं , 
बेटियां  प्यारी होती हैं .
 वे जलकर मरती हैं
 पत्थर खाकर मरती हैं ,
दहेज़ की बलिवेदी पर चढ़ती हैं
 और कभी गर्भ  में ही मरती हैं 
.बेटियां प्यारी होती हैं 
बेटियां न्यारी होती हैं

रविवार, 27 नवंबर 2011

Waiting for girlfriends by Jsome1


मेरे आंगन में कबूतरी के
 दो नन्हे बच्चे  रुई के फाहों से 
एक दिन  निकले  बाहर 
जब अपने खोलों से.
 मेरी बेटी ने नाम करण  किया उनका
 टिन टिन और डेल्फी नाम रख दिया उनका
 अब हमारी सुबह ,दिन और रात है
 टिन टिन और डेल्फी के नाम,
उनके  खाना औ पानी का ध्यान 
कौवों  से उन्हे बचाना .
 सारी जिम्मेदारी निभाना 
कितना मुश्किल है काम.
अब पति भी फ़ोन कर दिन में दो बार 
जान लेते है उनका हाल चाल
 पडोसी और उनके बच्चे  भी
 बजा कर घंटी बार बार 
 जानने को रहते है बेकरार
 कि टिन टिन क्या कर रही है
 डेल्फी सोया कि नहीं 
उनकी नींद के चक्कर में
 नींद उड़ गयी है मेरी 
सोचती हूँ दिन में उंघती हुई 
कब ये जायेंगे उड़कर अपने साथियों के साथ 
और ख़त्म होगा मेरा काम 
इसी सोच में ख्याल आया
 मेरे अपने बच्चे जब उढ जायेंगे 
अपने साथियों के साथ 
 तब भी तो  ख़त्म हो जायेगा काम
 अपने अकेलेपन के डर से 
तब एक सहमी हुई  हुए उदासी छाई
 और ख्याल को धकिया कर
 कबूतरी के बच्चों  में मन  लगाया 
अगली सुबह जब उठी
 तो देखा न कबूतरी है
 न टिन टिन और डेल्फी 
 बस  बचे है नीड़  के कुछ तिनके
कुछ पंख भर  उनके निशान 
भरी आंखों से देखा तो
 पति ने सर सहलाकर  समझाया
 यही है जिंदगी की वास्तविकता और दस्तूर
 बच्चों   को होना है बड़ा और जाना है दूर
तभी तो बन पायेगा उनका कुछ वजूद
.सच्चाई को समझना  और जानना 
कितना मुश्किल है मानना
 और  इन्तजार  करने लगी  
  फिर आयेगी कबूतरी और
 रुई से बच्चे  होंगे.................

बुधवार, 23 नवंबर 2011


कैसे भूल सकता है
 कोई नवाबो की इस रोड की शान 
वो नहर से निकलती पगडण्डी 
 वो शिव  मंदिर की गूंजती घंटी
 शाहजी की दुकान
 शर्माजी का मकान 
अरुणोदय की रंगत
  भट्टजी  की बसासत 
गुजरे है कई बचपन 
खिले है वहा यौवन 
 आंखों आंखों में होती बाते
 प्यारी सी वो यादें
 नवाबो की उस नगरी में 
 शेरों की कई मादें(हमारे आदरनीय मामाजी लोगों के घर) 
भूलेंगी न वो यादें
 बिसरी हुई वो बाते .......

बच्चो .......
तुम क्या दोगे 
अपनी आने वाली पीढ़ी को ?
मेरे पास तो थे देने को
नीम की बौर ,आम की अमराई.
एवरेस्ट औ महासागर 
हरहराते खेत ,भरभराती नदियाँ 
पर तुम क्या दोगे 
ऊँची मीनारों से पटे शहर,
या नाले बनी नदिया.
मेरे पास तो थे 
गाँधी और विवेकानंद 
भगतसिंह और आजाद 
पर तुम क्या दोगे 
दाउद और इब्राहीम,
राजा और अमरसिंह .
मेरे पास तो थे अमिताभ और हेमा 
लता और रफ़ी 
तुम क्या दोगे
 वो चेहरे जो दोबारा दिखते ही नहीं
मेरे पास तो थे चाँद की चांदनी ,सूरज की तपन  
बारिश से नही धरती 
पर तुम क्या दोगे 
इमारतों से ढका आसमान ,गर्मी की अगन 
सोचो तो 
तुम क्या दोगे
 तुम्हारे  पास तो होगी ही नहीं 
देने  को वे सब चीजें
 जो मैने तुम्हे दी 
और तुमने नष्ट कर दीं
उनकी कद्र नहीं की
 समय रहते नहीं सम्हला 
और खो दी फिर
 तुम क्या दोगे
 बोलो तो
 अपनी आने वाली पीढ़ी को????

शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

In the fog...
मुझे याद है 
जब कोहरे  से ढकी कांच की खिड़की में
 ख़ामोशी से नाम लिखा करती थी
 दो नाम........
 एक तेरा एक अपना 
गवाही आज भी देती है
 बर्फ की फाहें 
ख़ामोशी से खडे देवदारु कुछ
 वो सामने की पहाड़ी 
जो न देखने का बहाना करती थी तब
 बर्फ का घूँघट ओढ़ कर ...... 

मंगलवार, 15 नवंबर 2011




सोचा है कई बार
कुछ तो अनगढ़ -अद्बुत
होगा उस पार ........
माँ ने बताया था
 कि उस पार........
 है स्वर्ग या नरक का द्वार 
बना कर्मो को आधार
नियम है ईश्वर  के अपरम्पार  
 कि  करम जो  करे सुंदर 
 मिलेगा उसे   स्वर्ग का द्वार
  और जो करम करे बेकार 
सीधा जाये नरक के पार 
 अभी तक  भ्रान्ति यही  मन  में
 कि सच में होगा क्या उस पार?
अगर कर्म है आधार
 तो कैसे तय करता होगा पालनहार
 कि किसके गले पड़ेगा हार 
और किसे मिलेगा  नरक का द्वार..............

सोमवार, 14 नवंबर 2011

Early Birds
.आज बहुत दिनों बाद  
मेरी सुबह महकी महकी सी है .
आज बहुत दिनों बाद 
मेरे आँगन में धूप बिखरी है
 बहुत दिनों के बाद
 गूंजे है गीत.........
पल्लव खिले खिले से हैं
 बहुत दिनों के बाद 
 मोगरे की भीनी महक से
 महक गया है घर  आँगन 
 मुझे पता ही न था
कि सूरज की किरण ने
 तेरा आंगन जो पहले चूमा है 
फूलों की महक 
तेरे बदन से चुराई है
 कि जो हवा मेरे घर की तरफ आई है
 वो तेरे दरीचे  से होकर आई है ...........

गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

Seasons Change
आजकल तो
 बड़ा सुहावना होगा मौसम वहां  का
 हवा में ठण्ड  भी बढ़ गयी होगी
 स्वेटरों  और शालों  के नए डिज़ाइनो  से
 माल रोड रंगीन हो गयी होगी
 सिहरनों के साथ आ गया मौसम
 गालों की लुनाई भी बढ़ गयी होगी.
 काश कि ये रंगीनिया  देखने का मौका
 एक बार फिर से मिल जाता 
ह़र बार  इसी इंतज़ार में 
हर साल निकल जाता है. 

सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

                               मेरे बचपन का मुक्तेश्वर 
बचपन जीवन का वो खुबसूरत पल होता है जो बार बार अपनी स्मृति को गुदगुदाता है तो कभी एक अनजानी टीस से दिल को छलनी कर देता है .....मुझे लगता है कि मैं आज  तक अपने बचपन को,बचपन के साथियो को,उन खुबसूरत वादियों को समानांतर जी रही हूँ .रामलीला के आते ही मेरा दिल मचलने लगता है और मैं nostalgic  हो जाती हूँ कि  काश पंख होते तो जरुर अपने शहर हो आती .... उन सभी को समर्पित जो मेरी यादों की अविस्मृत अंग है                                                                        
                                                        
          हिमालय को चूमती सर्द हवा के गुनगुनाहट ,चिड़ियों  की चहचाहट ,सुरम्य पहाड़ी इलाका .हर पल नया,हर वर्ष नवीन ,हर मौसम सुहाना, हर क्षण प्रकृति अपनी अनूठी धरोहर के दर्शन देती है।इसलिए तो मन  बार- बार यहाँ भाग आता  है और हर बार यहाँ आने पर नए तरह का रोमांच......ऐसा लगता है कई बार देखी प्रकृति  में पिछली  बार कुछ अनदेखा  रह गया है.
         मन कभी नहीं भूल सकता यहाँ के त्योहारों को.दशहरे में कड़कती ठण्ड के बावजूद रामलीला की तैयारी।रामलीला  का इंतज़ार तो यहाँ बच्चे  ,बड़े,स्त्री-पुरुष सभी बड़ी बैचेनी से करते हैं . मुझे याद है रामलीला शुरू होते ही हम टोली बना लेते और शाम को यहाँ के अनोखे रामलीला मैदान में रामलीला होती और दिन में हम बच्चों की टोली रामलीला करती.आज भी 'रखियो लाज हमारी नाथ ' के बोल यदाकदा होठों पर उभर ही जाते है.महिलाओं  के हाथों में स्वेटरों  की सिलाईयाँ  हारमोनियम तथा तबले के थापों के साथ धीमी और तेज़ गति से चलती.नौ दिन की रामलीला में परिवार के एक एक जोड़ी स्वेटर नवीन डिज़ाइनो के साथ तैयार हो जाते मानो इन स्त्रियों के लिए रामलीला जाड़ों के आगमन की तैयारी हो.हम बच्चे एस अवसर में सबसे जल्दी माथे पर टीका  लगाने पर बहुत गर्व महसूस करते थे. त्रिशूल के आकार का यह टीका प्रत्येक रामलीला देखने आए बच्चे के माथे पर होता था .रामलीला के पात्रों  को तैयार करने के साथ-साथ  मेकअप  कलाकारों के जिम्मे हमें तैयार करने का काम भी अवश्य रहता और हम बच्चों की टोली के पहुँचते ही बिना खीजे हमारे माथे पर रामलीला का चिन्ह अंकित कर देते .
        चौबीस  दिसम्बर की सर्द रात का भी इस पहाड़ में कम महत्त्व नहीं था . चौपल्ली के नीचे बने गिरजाघर में इसु के जन्म की कहानी भी तो हम बच्चों  को जवानी याद थी.रामलीला के ख़त्म होते ही क्रिसमस के केक का इंतज़ार भी हमे कम नहीं रहता था.
मकर संक्रांति के दिन बर्फ से पटी धरती से बेपरवाह,गले में संतरे और खजूरों की माला पहने काले कौवा को चीख- चीख कर बुलाना भी सुखद खेल होता था.फागुन के आगमन पर ढोलक की थाप पर गाते महिला पुरुषों के गीत के बोल आज भी कानो में गूंजते है।शाम को खड़ी होली तथा दिन में कुनकुनी धुप में सफ़ेद साड़ी  में रंगों से सराबोर महिलाओं की व्यस्तता,आलू-गुटके,हलुवा,गुझिया तथा कालीमिर्च की चाय की चुस्कियां  होली के माहौल को और भी सरगर्म कर देती.
         केम्पस स्कूल के रूप में स्थापित  चिल्ड्रेन्स कॉर्नर यानि हमारे जीवन की पहली सीढ़ी....आज जब गुजरती हूँ वहां  से तो याद आ जाती है- बचपन की तुतलाती कविताएँ,जो अनायास ही कभी परियों के देश में हमें घुमा लाती थी या किसी बुढ़िया की कहानी,जो बर्फ की तरफ सफ़ेद सूत कातती थी.सांस्कृतिक कार्यक्रमों का अनूठापन  तो मुक्तेश्वर का पर्याय था।शायद ही यहाँ का कोई बच्चा  अच्छा  अभिनयकर्ता न हो.
       चैप्मन  आंटी के घर की अंग्रेजी की पढाई  भी तो हमारे जीवन की अभिन्न अंग थी.तीन  बजे स्कूल से घर पहुच नाश्ता करते ही शुरू हो जाती हमारी ट्यूशन  बनाम केक,पस्ट्री,टॉफी मिलने की जगह पहुचने की तेयारी .मोहन बाज़ार में हम सब बच्चों  की टोली जमा हो कर  ग्रोस्बाज़ार  की उन भीमकाय  चट्टानों पर माँ की हिदायतों के बावजूद उछलकूद  मचाने  से नहीं चूकती,जहाँ से नीचे देखने में आज मन  सिहर जाता है.
         एक ऐसी जगह है जहाँ  से आज भी गुजरते हुए  एक बार कदम थम से अवश्य जाते है।वो जगह है-अस्पताल।सबसे ज्यादा था सुई का डर,पर कर्नाटक बाबू की कृपादृष्टि  से मिला थोडा सा सिरप मानो अमृत हो।विक्स ,स्त्रेप्सिल  की गोलीं,सुई के दर्द को भुला देने की क्षमता रखती थी.
             शोध संस्थान होने  के कारण  देश के कोने- कोने से आए लोगों ने मानो एक छोटा सा भारत  इसी पहाड़ में जमा कर दिया है.अपनी-अपनी बोली का प्रभाव छोड़ कर यहाँ की कुमाउनी भाषा के प्रभाव में बंधे तेलगू,तमिल,मलयाली,बंगाली और देसी लोग (मैदानी)'के हाल है राइ','कास छा' या 'नन्तीन ठीक छान' कहना भी सीख ही जाते.
         बचपन में जब भी अपने रिश्तेदारों या परिचितों को चूहे ,खरगोश, गाय,घोडे दिखाने ले जाती थी तो पशु चिकित्सविद की बेटी होने का गर्व महसूस करती थी , आज तक नहीं भूलती हूँ जब पशुओं के आहार तथा क्रियाकलापों का एक -एक वर्णन इस प्रकार करती मानो वर्षों से में ही यहाँ शोध कर रही हूँ और अपने इस ज्ञान से भी उन्हे  वंचित नहीं होने देती कि जब गाय  कागज़ खाती है तो इसका कारण उनके शरीर  में फास्फोरस की कमी होती है या सीरम किस प्रकार बनाया जाता है.सोने के पानी में मढ़ी किताबों का महात्म्य भी बखूबी उनके सामने बांचा जाता.
            एक सुखद अनुभूति जो कभी विस्मृत नहीं हो सकती वो थी चावला  अंकल की सबसे पहले मुक्तेश्वर में आई कार में बैठने की अनुभूति.जो हमारे नन्हे मन को विमान में बैठे होने  का सुख देती.पश्मीना फार्म,सूर्मानी तक इस कार  में बैठे हम बच्चों  की अदभुत अंतरिक्षयान की यात्रा से कम नहीं होती थी.आज मिलने वाली सभी सुख सुविधाएं उन क्षनाभुतियों  के सामने नगण्य हैं.
            और भी क्या-क्या नहीं समेटा है मन  ने इस स्वर्ग से,क्या-क्या नहीं संजोया है आंखों ने धरती के कोने-कोने से,जो जन्म -जन्मान्तर  तक विस्मृत नहीं हो पायेगा. सोचती हूँ क्या  आज एक पल के लिए मिल पायेगा -----हमे हमारा  बचपन का मुक्तेश्वर. 

बुधवार, 24 अगस्त 2011

do haath

A general view of of the blast site near the Opra house Mumbai
बारूदों से खेलते हुए ,
क्या तुमने सोचा है .
 कि जिन हाथों से 
तुम चलाते हो गोली 
वैसे ही कुछ होते होंगे
 दो हाथ  
जो अपने घर के लिए
 दो जून की रोटी जुटाते होंगे
 क्या कभी तुमने सोचा है
 दो हाथ
 आलिंगन में लेते होंगे
 अपने मासूम से बच्चों  के चेहरे 
देखते होंगे स्वप्न कुछ अनजाने 
.दो हाथ 
 किसी बूढे की लाठी
 किसी नवोढ़ा की जाति,
 किसी बहन की राखी
 के बन्धनों में बंधते होंगे
 क्या तुमने कभी सोचा है
 बारूद से सने तुम्हारे
 दो हाथ 
कितनों के  जीवन  के
 रक्त से सनेगे 
कितनी आँखों के सपने टूटेंगे
कितने अरमान छुटेंगे
दो हाथ 
नियामत हैं खुदा क़ी
क्यों करते हो बर्बाद
 इनको रहने दो 
बनाने के लिए 
रिश्तों को निभाने के लिए 
रहने दो   यूँ ही इन्हें 
जमाने के लिए ........ 

बुधवार, 10 अगस्त 2011

intazar


waiting for you miss u
आज फिर वो शामें याद आ  रही है.जब बेमतलब ,बेवजह सड़कों में घूमा  करते थे.चुपचाप----मानो ठण्ड से होंठ   भी जम गए हों.बोलने को जी नहीं चाहता था परन्तु फिर भी लगता था इस चुप्पी में हजारों अनकही बातें कह रहे हो ........, सुन रहे हो ......
          .अचानक एक शाम -सोडियम बल्ब की रौशनी में एक पत्य्हर के टीले में बैठ गयी.झील के किनारे ठंडी हवा और गिरती हुई ओस के कारण पत्थर भी ठंडे हो गए थे.कोहरे का यह हाल था कि एक हाथ आगे कोई दिखाई भी नहीं पड़ता .मन बहुत अशांत था .कुछ कहना चाहती थी.... कुछ क्या बहुत कुछ और सुनना भी चाहती थी बहुत कुछ पर न शब्द तुम्हारे  पास थे न मेरे पास .महसूस तो कर सकते थे पर मन नहीं था अहसास की अनुभूति से दूर होते जा रहे थे.
       अचानक ऐसा लगा कि कुछ कहना जरुरी हो गया है.अगर अभी नहीं कहा तो शायद कभी नहीं कह पाऊँगी .मैने धीरे से हाथ बदाए-तुम्हारे हाथों का सहारा लेने के लिए.तुमने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई.तुम मेरी भावनाओ से बिलकुल दूर अपने में गुम. हमेशा से ही ऐसा करते हो,ये कोई नई बात तो नहीं.में बहुत आहत हुई मुझे तुमसे ऐसी आशा  नहीं थी   हर बार यही होता है  जानते हुए भी में कई ऐसी आशाएं कर बैठती  हूँ शायद कुछ न मिलने पर भी में कुछ मिलने की आशा रखती हूँ और  रोज़ इसी तुम्हारे  पास आती हूँ.तुम विरक्त सन्यासी की तरह खुद को छुड़ाकर मेरी पहुँच  से दूर पहुँच  जाते हो .
        अचानक सैलानिओं का एक झुण्ड आया.शोर हुआ मैने अपना हाथ समेट लिया  उन्होने एक दो शब्द हमारी ओर उछाले और चल दिए.मेरी हिम्मत नहीं हुई कि फिर मेरे ठंडे हाथ तुम्हारे  हाथों का सहारा ले सके.में अपने हाथ कोट में डाले उन्हे  गर्माने की कोशिश  करने लगी  जो तुम्हारे  हाथों में आकर और भी ठंडे हो चुके थे.मैने फिर बोलने की कोशिश की.तुमने मुझे ऐसे देखा कि में  चुप हो गई.
        अब में समझ चुकी थी कि तुम एकांत से डरकर मेरे    पास आते हो मगर फिर भी एकांत में रहना चाहते हो अकेले- खुद में -अपने बाहर की दुनिया से अलग.सोडियम लाइट का पीलापन बढ़ चुका था.कोहरा घना हो गया .पहाड़ ढक गए थे. ओस ने बूंदों का रूप ले लिया था .हमे चलना चाहिए .ऐसा शायद हम दोनों ने  महसूस किया मगर कहा नहीं. हम एक साथ खडे हुए और बिना बोले चलने लगे .मोड़ आया मैने मुड़ना  चाहा हम दोनों रुक गए...........देखा......कुछ कहने की जरुरत महसूस नहीं हुई.तुमने मुझे देखा और मैने तुम्हे . तुम चल पडे अपनी राह और में अपनी राह. कुछ दूर जाकर में मुड़ी .शायद तुम भी देखोगे पर नहीं तुम्हे  इसकी जरुरत नहीं . में खड़ी रही. मेरी इच्छा हुई जोरो से चीखूँ -  रुको , मुझे तुमसे कुछ कहना है मगर बोल वही जम गए और आंखे बह चली. में खड़ी रही आंसू लिए तुम्हें  जाते देखती रही. तब तक जब तक तुम एक बिंदु बनकर ओझल नहीं हो गए . में लौट चली कल के लिए ...............

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

virasat mein




मानव,मानवों की व्यथा
पहचान ले जरा सा
 वर्ना अपने, रक्त भी भुला देंगे
आपसी रिश्ते औ पहचान
वह साझेदारी
जिसे पूर्वजों से पाया था
हमने विरासत में
आने वाली पीढ़ी को क्या बतायेंगे 
 जो अपने ही रक्त को
खुद से प्रथक  समझेगी
क्या हम उनेहे देंगे
विरासत में
यही खुदगर्ज़ी ,बदला, खून..............

mumbai blast

मुंबई ब्लास्ट एक त्रासदी ,कि शब्द दिल से निकल ही नहीं रहे दिल में बहुत गुस्सा और दुःख है जो सबके साथ बांटकर कम करना है
किसी रोते हुए को
 हंसा आये
 दर्द एकाध उनके
चलो बाँट आए.
थोड़ी सी मरहम
अपनी ओर से
उनको लगा आयें
अब न बैठे यूँ  ही
अपने नेताओ के आसरे
चलो कुछ कदम
अब हम ही बढ़ाये
खून तो हमारा  ही है
चाहे  बेटा किसी का हो
निगाहे किसी माँ की
या बहन की
खोजतीं   होंगी उनको
चलो उन निगाहों का साथ
निभा आए
कल की दास्ताँ  
बस सिर्फ खबर न रह जाये
अपना ही कोई खबर न बन जाये
चलो सोते
दिलो को जगा आयें
किसी रोते ही को
हंसा आयें . 

सोमवार, 11 जुलाई 2011

Dedicated to school.....who loved us selflessly...

Spring tale

ये विदा तो नहीं
 परंपरा है एक
आशीर्वाद देने की
क्योंकि  में जनता हूँ तुम
 मुझसे दूर नहीं जा रहे
क्योंकि  तुम मुझसे दूर जा ही नहीं सकते
क्योंकि तुम तो मेरे हो अंग हो
संलग्न हो
आत्मा हो .
में माँ या ईश्वर तो नहीं
पर अपना सर्वश्रेष्ठ   तो देने की
कोशिस में निरंतर संघर्ष रत रहा
उतना ही जितना तुम
 पहले दिन से तुमने संघर्ष किया
कलम पकडने से के लिए
दो कदम चलने के लिए
दो कौर खाने के लिए
में भी माँ के सामान ही
साक्षी रहा
संलग्न रहा.
 हाँ में तो
साक्षी  हूँ
तुम्हारी  आढी  तिरछी रेखाओं का
तुम्हारे  डगमगाते क़दमों का . मैने  देखा है तुम्हे
अकेले रोते हुए
 खिलते हुए
शरारत करते हुए
तुम्हारी  चिल्लाहट
 मेरे भीतर तक
समां गयी है कही
तुम्हारी  ख़ामोशी
मुझे सताती है
तुम गिरे तुम उठे तुम दौडे
कई बार मैने तुम्हे  थामा है अपनी बाँहों में
हाँ में साक्षी हूँ तुम्हारे  तनाव
तुम्हारी  उदासी
तुम्हारी  तड़प
पर यकीं मनो
कि में माँ नहीं
तो भी तुम्हारे  हर आंसू के साथ रोया
हर हंसी के साथ किलका
हर  तड़प में तडपा
तुम बिखरे तो में बिखरा
तुम जुडे तो में जुड़ा
तूम  बने तो में बना
इसलिए तो
आज में खुश हूँ
तुम्हारे साथ दो कदम चलने  का गर्व
व्यक्त कर दिया मैने
इस उम्मीद के साथ कि ये दो कदम ,दो कदम नहीं
साथ है जीवन का
इसलिए  तो कह रहा हूँ
यह विदा नहीं
 एक परंपरा है
 आशीर्वाद की
कि आज
एक माँ के सामान
आत्मविश्वास दे रहा हूँ
कि तुम चाहो  भी तो
छोड़ न पाओगे
मेरा साथ
में संलग्न हूँ
में साक्षी हूँ
में साथी हूँ
तुम्हारा सदा से
सदा के लिए.

For my daughter



बेटी तुम न समझोगी
मेरा प्यार ........
गर्भ में तुम्हरी आहट
देती थी दिल को जो झंकार
बेटी तुम नहीं समझोगी.......
 नन्ही नन्ही हथेलिओं की गर्माहट
तुमारी मीठी किलकारी
बनी मेरे जीवन का संगीत
बेटी तुम न समझोगी.........
तुम्हारी  उनीदी आंखों  में
 देख ली तभी तुम्हारी   बारात
दिन औ रात का यह स्वप्न
बेटी तुम नहीं समझोगी .........
तुम्हारे  बढने का अहसास
बढाती है धड़कन  मेरी
तुम्हारी   आँखों  के सपने
उड़ाते रातों की नींदे मेरी
बेटी तुम नहीं समझोगी ........
एक दिन आयेगा
एक राजकुमार
तुम्हारा  थामेगा जब हाथ
 सजा डोली,पर मन करता चीत्कार
गाते होठ बरसाती आँख
बेटी तुम न समझोगी ........जीवन का आना
तुम्हारे गर्भ में आहट
उसकी नन्ही हथेलिओं की गर्माहट
ममता तुम्हारी  आँख
बनेगा जब जीवन संगीत
बेटी तब तुम समझोगी
बेटी तब तुम समझोगी
मेरा प्यार .......

रविवार, 10 जुलाई 2011

rishta

Misty winter afternoon

अगर ये सच है
कि हमारे बीच
 कोई रिश्ता नहीं
 तो फिर क्यों
तुम
रोज़ सवेरे सूरज की किरणे बनकर
मेरे बिस्तर तक पहुच जाते हो
 दिन में मेरी रसोई की
 खिड़की से आती धूप बन जाते हो
और रात को चाँद की
रौशनी में समां
मेरे अंधेरे को समेटते जाते हो
मेरे अंतर तलक
शीतलता भर्ती जाते हो
 मेरे ख्यालों में रोज़ रोज़ आते हो
साये की तरह हर वक़्त
मेरे सम्पूर्ण व्यक्तित्व को
खुद में डूबते  जाते हो
रिश्तों से दूर
 क्या नाम दूँ
क्या ये अनाम रिश्ता
हमेशा की तरह
हमेशा रहेगा
अनाम....