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बुधवार, 14 दिसंबर 2011


जो  लिखी थी नज़्म कभी तेरे नाम की
 वो   आज   तेरे   नाम   कर    रही    हूँ .
 देरी में ही सही कागजे कलम कर रही हूँ .
बीते  हुए  लम्हे यूँ  ही बिखर जाएँ न  कही
आज  एक बार फिर से उन्हे कैद कर रही हूँ .
सजाये  थे  जो  पल  सपनो  में   कभी
 आज उनको  शहरे  आम  कर  रही    हूँ.
तुझे  गम औ  गिला   हो  कि  न     हो 
तू पढे न पढे ये कलाम कोई फर्क नहीं
 बस  ये नज़्म मै तेरे नाम कर रही हूँ .

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